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देवता: मित्रावरुणौ ऋषि: गृत्समदः शौनकः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

रा꣡जा꣢ना꣣व꣡न꣢भिद्रुहा ध्रु꣣वे꣡ सद꣢꣯स्युत्त꣣मे꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢स्थूण आशाते ॥९११॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

राजानावनभिद्रुहा ध्रुवे सदस्युत्तमे । सहस्रस्थूण आशाते ॥९११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रा꣡जा꣢꣯नौ । अ꣡न꣢꣯भिद्रुहा । अन् । अ꣣भिद्रुहा । ध्रुवे꣢ । स꣡द꣢꣯सि । उ꣣त्तमे꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢स्थूणे । स꣣ह꣡स्र꣢ । स्थू꣣णे । आशातेइ꣡ति꣢ ॥९११॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 911 | (कौथोम) 3 » 1 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 5 » 3 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—आत्मा और मन के पक्ष में। (अनभिद्रुहा) द्रोह न करनेवाले, (राजानौ) राजाओं के समान विद्यमान आत्मा और मन (ध्रुवे) दृढ़ अङ्गोंवाले, (उत्तमे) सर्वोत्कृष्ट, (सहस्रस्थूणे) हड्डीरूप बहुत सारे खम्भोंवाले (सदसि) देहरूप घर में (आशाते) निवास करते हैं ॥ द्वितीय—राजा और प्रधानमन्त्री के पक्ष में। (अनभिद्रुहा) प्रजा से द्रोह न करनेवाले, (राजानौ) राष्ट्र के उच्चपदों पर विराजमान राजा और प्रधानमन्त्री (धुवे) स्थिर, (उत्तमे) सर्वोत्कृष्ट, (सहस्रस्थूणे) हजार खम्भोंवाले (सदसि) सभागृह में (आशाते) आकर बैठते हैं ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे आत्मा और मन मनुष्य के जीवन को उन्नत करते हैं, वैसे ही राजा और प्रधानमन्त्री राष्ट्र के जीवन को उन्नत करें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—आत्ममनःपक्षे। (अनभिद्रुहा) द्रोहरहितौ (राजानौ) राजवद् विद्यमाने आत्ममनसी (ध्रुवे) दृढावयवे, (उत्तमे) सर्वोत्कृष्टे, (सहस्रस्थूणे) अस्थिरूपबहुस्तम्भे (सदसि) देहगृहे (आशाते) आनशाते व्याप्नुतः निवसतः। [अशूङ् व्याप्तौ ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः।’ अ० ३।४।६ इति वर्तमाने लिट्। नुडभावश्छान्दसः] ॥ द्वितीयः—नृपतिप्रधानमन्त्रिपक्षे। (अनभिद्रुहा) प्रजां प्रति द्रोहरहितौ, (राजानौ) राष्ट्रस्य उच्चपदयोः विराजमानौ नृपतिप्रधानमन्त्रिणौ (ध्रुवे) स्थिरे, (उत्तमे) सर्वोत्कृष्टे, (सहस्रस्थूणे) सहस्रस्तम्भे (सदसि) सभागृहे (आशाते) व्याप्नुतः, आगत्य तिष्ठतः ॥२॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथाऽऽत्ममनसी मनुष्यस्य जीवनमुन्नयतस्तथैव नृपति- प्रधानमन्त्रिणौ राष्ट्रस्य जीवनमुन्नयेताम् ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० २।४१।५ ‘आशाते’ इत्यत्र ‘आसाते’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं राजप्रधानपुरुषविषये व्याख्यातवान्।